जैन शासन में श्रमण अपरिग्रही होते है।
इसलिए तीर्थों की मालिकी अथवा व्यवस्था में श्रमणों का स्थान नहीं होता है!
सच में?
6 – पूर्वजों का कहना है…
श्रृंखला के अंतर्गत वड़ीलो का कहना हैं
(गुजराती श्रृंखला में से भावानुवादित)
“… परंतु समय के चलते श्रमणों का वर्चस्व पेढ़ी के ऊपर से घटता गया; लगभग नहीवत् हुआ है। सभी मामलों में श्रमणों का मार्गदर्शन लेना, और उसके अनुसार आचरण करना ऐसी स्थिति, पेढ़ी को पीछले कुछ दशकों से बहुत रुचिकर नहीं आ रही है।
कुछ सामान्य और जाहिर प्रयोजनों में, विशेष रूप से फंड – उछामणी जैसे प्रयोजनों में, श्रमणों का मार्गदर्शन जरूर से लिया जाता है; लेकिन नीतिविषयक और सकल संघ के तथा तीर्थों के हित को स्पर्श करते व्यापक मुद्दों को लेकर ऐसा मार्गदर्शन अनावश्यक माना जाता है….
…परंतु, पेढ़ी के व्यवस्थापकों की दृढ़ मान्यता है कि साधुओं को व्यवस्था के मामलों में दखल अंदाज नही करना चाहिए, पेढ़ी कैसे चलानी, किन प्रसंगों पर कौनसा निर्णय लेना, कैसी नीति रखनी, वें तो गृहस्थों के विषय है, साधु इन में पड़े तो बराबर नहीं गिना जाता हैं; शिथिलता कहलाती है।
ऐसी मान्यताओं अथवा तो भ्रमणाओं का ही परिणाम है कि एक तरफ श्रमणों की निश्रा की उपेक्षा हुई है, तो दूसरी तरफ अति गंभीर क्षतियों का सर्जन भी हुआ है। जब कोई कड़वा हित कहने वाला नही होता है तब क्षतियाँ ही होती हैं, और फिर क्षतियों को ही सही काम किया ऐसा मानना* यह एकदम स्वाभाविक बात हे…
- प. पू. आचार्य भगवंत श्री विजय शीलचंद्रसूरिजी म.सा.
(ता. १५ अगस्त, २००९ के दिन खंभात से जाहिर हुआ सकल संघ जोग निवेदन)
Our ancestors have time and again reprimanded Seth Shri Anandji Kalyanji Pedhi for its innumerable mistakes and wrongdoings committed against the interest of Jin Shaasan.
‘Purvajo Kahe Che’, is a series that reveals these documented facts and historical insights for the benefit and awareness of Shri Chaturvidh Sangh.