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प्रश्न १: पंडित म.सा एक धर्माचार्य होकर, आनंदजी कल्याणजी पेढ़ी के ट्रस्टीयो पर ‘राणकपुर तीर्थ सामने चलकर लुटा देने’ का जो आरोप लगा रहे हैं क्या वह योग्य है? क्या इससे मृषावाद का दोष नहीं लगता?
उत्तर: एक धर्माचार्य जब सबूत के साथ बोलने का दावा कर रहे हो तब उनके पास मौजूद सबूतों की जांच किए बगैर ‘वे जूठ बोल रहे हैं, गलत आरोप लगा रहे हैं’ – ऐसा खुलेआम बोलना ही क्या उन पर एक निम्न कक्षा का आरोप नहीं कहा जाएगा?
मूल बात यह है कि यदि हमारी संपत्ति संभालने की जिम्मेदारी किसी को सौंपी हो, वह संपत्ति सरकार अपने नाम पर कर दे, फिर भी वह जिम्मेदार व्यक्ति कइ दसको तक निष्क्रिय ही रहे और जब सरकार की ओर से कोई अवरोध आए तब उसकी नींद उडे, अंततः अपनी मालिकी के सारे सबूत होने के बावजूद भी वह अदालत में जाकर ऐसा मंजूर कर ले कि ‘वह संपत्ति हमारी नहीं है’ तो ‘उसने सामने चलकर हमे लुटा दिया’ ऐसा नहीं कहेंगे?
यदि वह संपत्ति आपकी होगी तो जरुर कहेंगे। इतना ही नहीं, बड़े आघात और आक्रोश के साथ कहेंगे।
ठीक उसी तरह, यदि तीर्थ अपना लगता हो और उसे संभालने वाली पेढ़ी अदालत में ऐसा स्वीकार कर ले कि ‘यह तीर्थ जैनों का नहीं है’ तो ‘पेढ़ी ने सामने चलकर राणकपुर लुटा दिया’ ऐसा आघात जरुर लगेगा। और जिसको तीर्थ पराया लगता हो उसे इस घटना से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। अब सोचना हमे है कि हमें तीर्थ अपना लगता है या पराया?
इतना ख्याल रहे कि इस भाषा को शास्त्रीय परिभाषा में भी व्यवहार सत्य ही कहा जाता है। अतः इसमें मृषावाद का कोई सवाल ही नहीं उठता।