शास्त्रों में स्पष्टतया लिखा है कि ममत्व, मोह, आसक्ति से परिग्रह होता है ।
साधु के अपने उपकरण, उपधि, क्षेत्र, तीर्थ, शासन आदि पर आधिपत्य रूप मालिकी तो हो सकती ही है, लेकिन निर्लिप्तता, ममत्वरहितता के कारण वे परिग्रहधारी नहीं कहलाते ।
जैसे साधु को उपकरण, गोचरी-पाणी आदि प्रदान करने के बाद आप वापस मांग नहीं सकते और कोई मांगे तो भी साधु वापीस नहीं देते, क्योंकि अब उन पर सिर्फ साधु की ही मालिकियत है !!
किंतु वो तनिक भी परिग्रह रूप नहीं है ।
– प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय
युगभूषणसूरिजी महाराजा ।
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