आज जो साधु संसार त्याग कर दीक्षा ले, उसे ऐसा सीखाया जाता है कि जैनसंघ में आपको टिकना हो,तो ट्रस्टीयों की दाढी में हाथ डालना जरुरी है। उनको बड़े भाई की तरह treat करना अनिवार्य है!! सोचिए, बचपन से जिसे इस तरह दबाया जाए, वो कभी जिनाज्ञानुसारी सच्ची बात कहने की हिम्मत रख पाएगा?? और शायद कोई ऐसा सत्त्व से कहने जाए, तो उसे ऐसा अनुभव करवाया जाए कि वो जीवन भर आंख उठा न सके!! क्या आज जैनसंघ में हिम्मत और सत्त्व से जिनवचन अनुसारी सत्य कहनेवाले साधुओं की कोई जरूरत नहीं है??
प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय
युगभूषणसूरिजी महाराजा