जैन साधु के पवित्र जीवन की, उनके तप-त्याग-संयम की, उनके पवित्र आचारों की, लोगों के दिलों-दिमाग पर थोड़ी बहोत छाया है..!!
इसलिए लोग उनके उपदेश से धर्मकार्य में उल्लास से दान करते हैं..!!
लेकिन धर्म के नाम दिए गए दान का योग्य तरीके से जिनाज्ञानुसार वहीवट करवाने के लिए भी धर्मगुरु का कोई voice आज नहीं रहा..!!
धर्म के नाम किए गए दान पर धर्मगुरु या धर्म का वर्चस्व नहीं रहता बल्कि ट्रस्ट, ट्रस्टी और सरकार का वर्चस्व आ जाता है..!!
– प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद्विजय
युगभूषणसूरिजी महाराजा ।
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